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Ashwamedh Yagya

पंच यज्ञ

1. पंच यज्ञ : वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं-1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। इसमें देवयज्ञ अग्निहोत्र कर्म संपन्न होता है। अग्निहोत्र यानी अग्नि के द्वारा। इसी प्रकार में हम अश्वमेध यज्ञ को रख सकते हैं।

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अश्‍वमेध का अर्थ

2. अश्‍वमेध का अर्थ : अश्‍व का अर्थ घोड़ा और मेध का अर्थ बलि, हवि और यज्ञ होता ह। जब हम पंचबलि की बात करते हैं तो उसमें गाय, कौवे, कुत्ते, चींटी और देव को अन्न दान करते हैं उनका वध नहीं करते हैं। उसी तरह अश्‍व का वध नहीं होता है। अग्नि के द्वारा। इसी प्रकार में हम अश्वमेध यज्ञ को रख सकते हैं।

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अश्‍वमेध यज्ञ क्या है

3. अश्‍वमेध यज्ञ क्या है : प्राचीनकाल में कोई भी राजा चक्रवर्ती राजा यानी संपूर्ण धरती का भारतखंड का राजा बनने के लिए अश्‍वमेध यज्ञ करता था जिसमें देवयज्ञ करने के बाद अश्‍व की पूजा करके अश्‍व के मस्तक पर जयपत्र बांधकर उसके पीछे सेना को छोड़कर उसे भूमंडल पर छोड़ दिया जाता था। जहां-जहां वह घोड़ा जाता था वहां तक की भूमि उस राजा के अधीन हो जाती थी। यदि किसी भूमि का अधिपति या राजा यज्ञकर्ता राजा की अधीनता स्वीकार नहीं करता था तो वह अश्‍व को बंदी बना लेता था। तब उस राजा के साथ अश्‍वमेध करने वाले राजा की सेना का युद्ध होता था। प्राय: यह यज्ञ वही राजा करता था जिसे अपनी शक्ति और विजय पर भरोसा होता था।

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आध्यात्मिक प्रयोग

5. आध्यात्मिक प्रयोग : अश्वमेध यज्ञ को कुछ विद्वान एक राजनीतिक और कुछ विद्वान इसे आध्यात्मिक प्रयोग मानते हैं। कहा जाता है कि इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अधिकतर नरेश मानते थे। कुछ विद्वान मानते हैं कि अश्वमेध यज्ञ एक आध्यात्मिक यज्ञ है जिसका संबंध गायत्री मंत्र से जुड़ा हुआ है। श्रीराम शर्मा आचार्य कहते हैं कि 'अश्व' समाज में बड़े पैमाने पर बुराइयों का प्रतीक है और 'मेधा' सभी बुराइयों और अपनी जड़ों से दोष के उन्मूलन का संकेत है। जहां भी इन अश्वमेध यज्ञ का प्रदर्शन किया गया है, उन क्षेत्रों में अपराधों और आक्रामकता की दर में कमी का अनुभव किया है। अश्वमेध यज्ञ पारिस्थितिकी संतुलन के लिए और आध्यात्मिक वातावरण की शुद्धि के लिए गायत्री मंत्र से जुड़ा है।

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पारंपरिक हिंदू मान्यता

पारंपरिक हिंदू मान्यता यह रही है कि राजा ‘मत्स्य न्याय’ अर्थात जंगल के नियम को उलटने के लिए होता है। राजा न होने पर देश में अराजकता पैदा होती है। राजा उसकी जगह पर अनुशासन लाता है। लेकिन कोई अपने आप को शासक के रूप में कैसे स्थापित करें? वेद और पुराणों जैसे ग्रंथों और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों से भारतभर में राजाओं के उदय को लेकर पता चलता है कि राजा चार तरीकों से बनाए गए।

सबसे पहला तरीका राजसूय और अश्वमेध जैसे वैदिक अनुष्ठान थे। राजसूय के अनुष्ठान में ब्राह्मण, होने वाले राजा के सिर पर जल डालकर उसे राजा घोषित करते थे। यह क्रिया निर्वाचित राजा का शासन स्वीकारने वाले अन्य राजाओं की उपस्थिति में की जाती थी। इस अनुष्ठान का महाभारत में उल्लेख है। इसके साथ किए गए अश्वमेध यज्ञ में राजसी अश्व उन क्षेत्रों में अबाधित घूमता था, जिन पर नए राजा का दावा था। इसका उल्लेख रामायण और महाभारत दोनों में है।

अश्वमेध यज्ञ का अंतिम उल्लेख गुप्त काल के आस-पास है। तब तक यानी 1500 वर्ष पहले तक राजा चुनने के तरीकों में बदलाव आ गए थे, जैसा कि उस समय उभर रहे पौराणिक ग्रंथों में देखा जाता है। उस काल में मध्य एशिया से यवन, शक, पह्लव और कुषाण भारत आ रहे थे। इन विदेशी शासकों ने देश में अपने शासन को वैध बनाना आवश्यक समझा। इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों की मदद से देश के प्राचीन देवताओं के साथ अपना संबंध स्थापित किया, इसके बावजूद कि ब्राह्मणों की रूढ़िवादिता उन्हें बेचैन करती थी।

इस प्रकार, पुराणों में कई बार राजाओं ने अपने आप को पहले मानव ‘मनु’ के वंशज होने का और उनसे भी महत्वपूर्ण सूर्यवंशी और चंद्रवंशी होने का दावा किया। शुरू में साम्राज्यों ने राजधानी को और वहां से बाज़ारों व बंदरगाहों तक जाने वाले राजमार्गों को विकसित किया। बाद में उन्होंने जंगलों की ओर ध्यान दिया, जिनमें कई लड़ाकू जनजातियां रहती थीं।

जनजातियों में देवी के योद्धा रूप - चामुंडा और दुर्गा - बहुत महत्वपूर्ण थे। राजा उन्हें राज्य के शत्रुओं के सिर बलि चढ़ाते थे। ऐसी कहानियां भी हैं, जिनमें उन्मत्त होकर सैनिकों ने स्वयं की बलि चढ़ा दी। देवी रणभूमि की देवी थीं। उनका सबसे पहला उल्लेख तमिल साहित्य में कोत्रवई के रूप में है। तीसरी और चौथी सदियों में कुषाण काल से कला और उपासना में दुर्गा का महत्व बढ़ने लगा। महिषासुर का वध करती हुईं आठ भुजाओं वाली दुर्गा कई राजाओं की संरक्षक देवी बन गईं। मराठा और राजपूत राजाओं से जुड़े लोकसाहित्य की कहानियों में दुर्गा राजाओं के सपनों में आकर उनका राज्याभिषेक करतीं और राजत्व की तलवार देकर उनके शासन को वैध बनातीं। इस प्रकार किसी राजा का दुर्गा से जुड़ी स्थानीय देवी से जुड़ जाना अपने राजत्व को वैध बनाने का तीसरा तरीका बन गया।

चौथा तरीका 1000 वर्ष पहले लोकप्रिय बना। इसमें ब्राह्मणों को किसी निर्धारित क्षेत्र में विशाल मंदिर परिसर स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया जाता था। इन मंदिरों में उस क्षेत्र के देवी-देवता विष्णु, शिव और शक्ति जैसे पुराणों के शक्तिशाली देवताओं से संबद्ध किए जाते थे। मंदिर बनने के बाद उनके इर्द-गिर्द शहर बनाए जाते। राजाओं ने इन देवताओं की ओर से राज किया। पूरी, तिरुवनंतपुरम, मदुरई और चिदंबरम ऐसे कुछ शहर हैं।

राजा का प्रभुत्व प्रतिष्ठापित देवता से आता था। मंदिर प्रशासन के केंद्र बन गए। ब्राह्मणों से राजसी अधिकारी वर्ग का निर्माण हुआ, जिसने कर इकठ्ठा करने में मदद की। इस काल में अग्रहार नामक गांव उभरे, जिनमें केवल ब्राह्मण रहते थे। इस प्रकार भारत में राजत्व और धर्म तथा राजत्व और ब्राह्मणवाद में गहरा संबंध था।

इस्लामी सरदारों और ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के आने से इन व्यवस्थाओं का पतन हुआ। इन नए अधिकारियों के सामने झुकने या उनका कड़ा विरोध करने से राजाओं को वैधता मिलने लगी। लेकिन, इस्लामी राजा ब्राह्मण दरबारियों को और अंग्रेज़ ब्राह्मण मुंशियों को बहुत महत्व देते थे। इस प्रकार, वैदिक काल से कुलीन ब्राह्मण राजसी सत्ता को आधार देते आ रहे थे।

स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र अपनाने के साथ राजवाद का अंत हुआ। सत्ता लोगों के हाथों में चली गई। लेकिन पाश्चात्य समतावाद की नकल करने में भारत ने संभवतः वह कौशल खो दिया, जो ब्राह्मण समाज प्राचीन काल से सफलतापूर्वक प्रखर करता आ रहा था और जिन्हें आधुनिक काल के लिए उपयोगी बनाया जा सकता था।

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